तीसरी कीमो के लिए हम तीनों — मैं, जीजा जी और पिता जी —
फिर से उसी रास्ते पर निकले।
इस बार 20वें दिन लखनऊ पहुँचे।
जैसे यह सफ़र अब हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका था —
एक नियमित दर्द, जिसे हर बार बस सहना होता था।
हॉस्पिटल पहुँचकर सबसे पहले ब्लड सैंपल जमा किया।
डॉक्टर के हिसाब से यह पिता जी की आखिरी कीमो थी।
इसलिए दिल में कहीं न कहीं थोड़ा सुकून भी था
कि शायद अब यह सिलसिला खत्म हो जाएगा।
सैंपल जमा करने के बाद हम ओपीडी की तरफ गए।
पर्चा लगवाया और वहीं बाहर बैठ गए।
थोड़ी देर बाद हमने नीचे कैंटीन से नाश्ता किया
और फिर लौटकर ओपीडी के बाहर बेंच पर बैठ गए।
अब तक मार्च से मई आ चुका था —
मौसम भी बदल गया था,
लेकिन हमारे दिन नहीं बदले थे —
वो अब भी वही अस्पताल की दीवारों के बीच अटके हुए थे।
नंबर आने में काफी समय लगा।
शाम के 4:30 बजे आखिर हमारा बुलावा आया।
मैं और पिता जी अंदर गए,
रेज़िडेंट डॉक्टर से बात हुई।
उन्होंने पूछा,
“अभी एक कीमो बाकी है न?”
मैंने कहा, “जी हाँ, कल हमारी आखिरी कीमो है।
आज सैंपल जमा किया है, रिपोर्ट शाम तक मिल जाएगी।”
उन्होंने सिर हिलाया और बोले,
“ठीक है, कल कीमो लगवा कर डिस्चार्ज ले लीजिए।
अब डॉक्टर साहब से भी मिल लीजिए।”
थोड़ी देर बाद हमें डॉक्टर से मिलवाया गया।
डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए पूछा,
“हाँ बताइए, क्या बात है?”
मैंने कहा,
“सर, आपने कहा था कि तीन कीमो लगेंगी —
तो कल आखिरी कीमो है।”
उन्होंने जवाब दिया,
“हाँ, कल कीमो पूरी कर लो।
उसके बाद 2 से 2.5 हफ्ते बाद
एक बार सीटी स्कैन करवा के ओपीडी में दिखाना।
फिर हम रिपोर्ट देखकर तय करेंगे —
या तो एक और कीमो देंगे,
या ऑपरेशन करेंगे।”
मैंने “ठीक है सर” कहा
और ओपीडी से बाहर आ गया।
बाहर आते ही जीजा जी ने पूछा,
“क्या कहा डॉक्टर ने?”
मैंने सारी बात उन्हें बताई।
उन्होंने बस इतना कहा,
“ठीक है, अब जो होगा अच्छा ही होगा।”
हम तीनों को भूख लग रही थी,
तो हॉस्पिटल के पास जाकर खाना खाया।
फिर पिता जी को वार्ड के पास बैठाया,
और मैं और जीजा जी रिपोर्ट लेने चले गए।
रिपोर्ट हाथ में आई तो मैंने झट से देखा —
सारी रिपोर्ट नॉर्मल थी।
न कोई कमी, न कोई चिंता वाली बात।
पहली बार चेहरे पर थोड़ी राहत आई।
धीरे-धीरे शाम ढलने लगी।
रात के करीब 8:30 बजे,
हम हॉस्पिटल की कैंटीन गए,
थोड़ा खाना खाया और
वार्ड के बाहर बेंच पर ही लेट गए।
अगली सुबह फिर वही रूटीन शुरू हुआ —
भागदौड़, दवाइयाँ लेना,
कीमो की तैयारी, और उम्मीद का इंतज़ार।
अब थोड़ी रफ्तार बढ़ गई थी —
कीमो जल्दी शुरू हो जाती थी
और शाम तक खत्म भी हो जाती थी।
उस दिन सब कुछ सामान्य रहा।
पिता जी थके हुए थे,
पर उनकी आँखों में एक सुकून था —
जैसे उन्होंने एक बड़ी जंग जीत ली हो।
हमने रात में खाना खाया,
थोड़ा आराम किया,
और अगली सुबह की ट्रेन पकड़कर
घर लौट आए।
घर पहुँचते ही लगा —
जैसे इस बार के सफ़र में
थकान ज़्यादा थी, पर डर थोड़ा कम।
अब अगली उम्मीद बस एक थी —
कि सीटी स्कैन में सब ठीक निकले
और पिता जी हमेशा के लिए स्वस्थ हो जाएँ।

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