Operation Day One



डॉक्टर जब सारी फाइलें बनाकर चले गए,

तो धीरे-धीरे वार्ड में सन्नाटा फैल गया।

सभी मरीज और उनके परिजन थककर सो गए —

सिवाय मेरे।

मुझे उस रात नींद ही नहीं आ रही थी।

बस करवटें बदलता रहा…

कभी घड़ी देखता, कभी छत को।

हर मिनट जैसे एक-एक घंटे में बदल रहा था।

धीरे-धीरे समय बीतता गया।

सुबह के 5 बजे एक वार्ड बॉय अंदर आया।

वो जिन मरीजों का आज ऑपरेशन होना था,

उन्हें कपड़े बदलने के लिए कहने लगा।

मैंने सिक्योरिटी मनी देकर कपड़े ले लिए,

पर पिता जी ने अभी तक बदले नहीं थे।

शायद वो भी भीतर से डर रहे थे —

पर चेहरे पर एक अजीब सी शांति थी।

थोड़ी देर बाद वार्ड बॉय ने आवाज़ लगाई —

“जिनका ऑपरेशन है, ओटी के पास चलिए।”

तब पिता जी ने कपड़े बदले।

हमने सारा सामान उठाया।

माँ को वार्ड में ही रहने को कहा —

और जो हमारे बैग-डिब्बे थे,

वो पास ही एक मरीज के परिवार के पास रखवा दिए।

मैंने पिता जी को ओटी वेटिंग रूम में बिठाया,

फिर बाकी सामान लेने वापस वार्ड गया।

थोड़ी देर बाद मैं और माँ दोनों

सारा सामान लेकर ओटी वेटिंग रूम पहुँच गए।

अब हम तीनों वहीं बैठे थे।

पिता जी शांत थे…

पर मेरे अंदर बेचैनी बढ़ती जा रही थी।

मैं बाहर निकलकर टहलने लगा।

सुबह के 8 बज चुके थे।

ओटी से मरीजों को बुलाया जाने लगा,

एक-एक कर ऑपरेशन शुरू हो रहे थे।

दोपहर के करीब 2 बजे,

कई मरीजों का ऑपरेशन उनके बीपी बढ़ जाने या कम होने की वजह से

रद्द कर दिया गया था।

अब मुझे डर लगने लगा —

कहीं पिता जी का भी न रुक जाए…

क्योंकि जिनका ऑपरेशन कैंसिल हुआ था,

वो दो-दो घंटे तक अंदर रहे थे।

तब तक जीजा जी भी आ चुके थे।

उनके आने से कुछ हिम्मत मिली।

उनके आने से कुछ ही मिनट पहले

डॉक्टर ने पिता जी को ओटी के अंदर बुला लिया था।

मैंने सारा सर्जरी का सामान डॉक्टर को दे दिया

और पिता जी को अंदर भेज दिया।

जीजा जी का फोन आया —

मैंने उन्हें जगह बताई और वो भी हमारे पास पहुँच गए।

अब वक्त जैसे थम गया था।

हर पाँच मिनट एक घंटे जैसे लग रहे थे।

हर जाती हुई स्ट्रेचर पर नज़र टिक जाती।

हर ओटी के खुलते दरवाज़े पर दिल की धड़कनें बढ़ जातीं।

शाम के करीब 7:30 बज रहे थे।

अचानक ओटी के बाहर से आवाज़ आई —

“दिनेश चंद्र!”

मेरे दिल की धड़कन एक पल को रुक गई।

मैं दौड़कर दरवाज़े की ओर गया।

पिता जी बाहर लाए जा रहे थे।

ऑपरेशन हो चुका था।

उनका चेहरा…

मैंने उन्हें कभी ऐसे नहीं देखा था।

वो आधे से ज़्यादा बेहोश थे,

चेहरे पर पट्टियाँ और नाक में एक नली लगी थी।

मैं उन्हें पहचान ही नहीं पाया।

मेरे पैरों के नीचे ज़मीन जैसे खिसक गई।

जीजा जी ने उन्हें स्ट्रेचर से बेड पर शिफ्ट करवाया।

मैं बस पास खड़ा देखता रहा —

न बोल सका, न कुछ समझ पाया।

शायद उसी पल मैं कुछ देर के लिए

सोचने-समझने की क्षमता खो बैठा था।

डॉक्टर ने बताया —

“नाक में जो नली लगी है,

वो कफ साफ़ करने के लिए है।

इसे सेक्शन करना कहते हैं।”

उन्होंने मुझे दिखाया कि कैसे करना है।

पर जैसे ही उन्होंने मशीन ऑन की,

मेरे सिर में चक्कर आने लगे…

मैं बाहर चला गया।

डॉक्टर ने मुझे वार्ड से बाहर भेज दिया

और जीजा जी को बुला लिया।

कुछ देर बाद मैं थोड़ा नॉर्मल हुआ।

तब नर्स ने मुझे दवाइयों के पर्चे देने शुरू किए।

पहला पर्चा टैबलेट्स का था —

मैं दवा लेने गया,

वापस आया तो दूसरा पर्चा तैयार था —

इस बार इंजेक्शन्स का।

इस तरह करीब 12 बजे तक

मैं लगभग 15 बार दवाइयाँ लेने जा चुका था।

हर बार उम्मीद यही रहती —

अब सब ठीक होगा।

अब कुछ देर के लिए पर्चे आना बंद हो गए।

मैं वार्ड के बाहर बैठ गया।

माँ पिता जी के पास थीं।

थोड़ी देर बाद पिता जी को होश आने लगा।

उन्होंने इशारों में हमें बुलाया,

धीरे से कहा —

“हम ठीक हो जाएंगे… टेंशन मत लो।”

शब्द पूरे नहीं थे,

पर उनके होंठों की हरकत से

मुझे सब समझ आ गया था।

मैंने उनका हाथ थामकर कहा,

“अब कुछ मत बोलिए, बस आराम कीजिए।”

पर सच कहूँ —

मुझसे उन्हें उस हालत में देखना सहा नहीं जा रहा था।

मैं वार्ड से बाहर निकल गया,

और बाहर की बेंच पर बैठ गया।

बाहर थोड़ी शांति थी —

पर भीतर तूफ़ान था।

अब जीजा जी मेरे साथ थे,

माँ अंदर पिता जी के पास।

धीरे-धीरे रात उतर आई।

दवा का पर्चा अब नहीं आ रहा था।

हम सब बस वहीं बैठे रहे —

थके हुए, पर जागते हुए…

एक-दूसरे को बिना कुछ कहे बस देख रहे थे।

आज का दिन वहीं खत्म हुआ —

पर मेरे अंदर कुछ टूट चुका था,

जो शायद फिर कभी पूरा नहीं हो पाया।

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