एक हफ़्ते बाद फिर वही सुबह आई —
वही हॉस्पिटल, वही रास्ता, वही बेचैनी।
अब तक सीटी स्कैन और बायोप्सी — दोनों की रिपोर्ट तैयार हो चुकी थीं।
हमने ओपीडी में नंबर लगवाया और मैं रिपोर्ट लेने गया।
रिपोर्ट लेकर वापस लौटा तो अभी हमारा नंबर नहीं आया था।
जिज्ञासा में मैंने लिफाफा खोला और कागज़ पर नज़र पड़ी —
उस पर लिखा था: “Squamous Cell Carcinoma.”
मुझे समझ नहीं आया इसका मतलब क्या है।
थोड़ी देर तक उसे यूँ ही देखता रहा…
फिर मन भारी हो गया और मैंने रिपोर्ट धीरे से बैग में रख दी।
शायद मन नहीं मान रहा था कि इसका मतलब वही है जो मैं सोच रहा था।
कुछ देर बाद हमारा नंबर आया।
हम अंदर गए।
डॉक्टर ने रिपोर्ट हाथ में ली — बस एक नज़र डाली —
और पिता जी को बाहर भेज दिया।
मैं अंदर ही रुका रहा।
डॉक्टर ने गंभीर आवाज़ में कहा,
“बीमारी काफी अंदर तक फैल चुकी है।
हम इसे दूसरे विभाग में रेफर कर रहे हैं — वहाँ इलाज जल्दी शुरू हो जाएगा।
यहाँ वेटिंग बहुत ज़्यादा है।”
उन्होंने पर्चे पर “Refer to Oncology Department” लिखकर हमें दे दिया।
मैंने सिर हिलाया और पिता जी को बाहर बुलाया।
उस हफ़्ते के बीच में ही पिता जी की दवा खत्म हो चुकी थी।
मैंने बहुत लोगों से संपर्क किया,
कई बार मना भी सुनना पड़ा —
लेकिन आखिर एक लड़के ने मदद की।
वो मेडिकल कॉलेज के पास गया, दवा खरीदी,
और बस में रखवा दी —
मैंने अपने शहर में जाकर वही दवा प्राप्त की।
उस दिन मुझे पहली बार लगा —
अजनबी भी कभी-कभी अपने बन जाते हैं…
अब हम रेफर किए गए विभाग में पहुँचे —
लेकिन पता चला कि आज बुधवार है,
और उस दिन ओपीडी बंद रहती है।
थोड़ी पूछताछ की तो पता चला —
“कल, यानी गुरुवार को ओपीडी खुलेगी।”
हम दोनों बाहर आकर बेंच पर बैठ गए।
पिता जी ने अपने ताऊ जी (जो लखनऊ में ही रहते थे) को फोन लगाया,
और सारी बात बताई।
उन्होंने कहा,
“ताऊ जी, अगर आज रात हमें घर पर रुकने दें तो कल सीधे हॉस्पिटल चले जाएंगे।”
पर ताऊ जी ने मना कर दिया,
कहते हुए,
“छोटा लड़का है घर पर, अकेला कैसे संभालेगा…”
पिता जी ने फोन रखा।
मैंने देखा कि उनके चेहरे पर कोई शिकवा नहीं था —
बस थकावट और मौन था।
मैंने धीरे से कहा,
“पापा, चलिए… वापस चलते हैं। कल फिर आ जाएंगे।”
हम दोनों बस पकड़कर वापस आ गए।
अब तक मुझे पूरी तरह यक़ीन हो चुका था —
पिता जी को सचमुच कैंसर है।
मुझे याद है,
जब पहली बार बायोप्सी हुई थी,
पिता जी बहुत डर गए थे।
उन्होंने ज़िंदगी में कभी इंजेक्शन तक नहीं लगवाया था।
डॉक्टर ने कहा — “लोकल एनेस्थीसिया लगाना पड़ेगा।”
मैंने उनका हाथ थामा,
वो काँप रहे थे।
डॉक्टर ने इंजेक्शन लगाया —
मैंने उन्हें कसकर पकड़ा,
पर जैसे ही सुई लगी,
मेरे ही सिर में चक्कर आने लगे।
फिर भी उन्हें छोड़ा नहीं —
जब तक सब खत्म नहीं हुआ।
जैसे ही प्रक्रिया खत्म हुई,
मैं खुद एक तरफ जाकर बैठ गया…
मन भारी था, पर भीतर कहीं गर्व भी था —
कि उस पल मैं पिता के लिए मज़बूत बना रह सका।

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